मनुष्य एक प्रकार प्राणी हैं, जिसमें साधारण पशुओं से कुछ बेहतर गुण और ज्ञान हैं। “एक उच्चमार्गीय प्राणी जिसमे मनुष्यत्व का गुण हैं, वही मनुष्य हैं।”
मनुष्यत्व गुणवाली –
“धृति क्षमा दम ऑस्टेयम शौचं इन्द्रिय निग्रहः ।
धी: विद्या सत्यम अक्रोधो दशकम धर्मस्य लक्षणं ।।”
-मनु स्मृति (मनु का नियम)
अनुवाद – धैर्य, क्षमा, आत्म संयम, गैर चोरी, शुचिता, अंगो पर नियंत्रण, बुद्धि, बिद्या, सत्यवादिता, क्रोध ना करना – यह दस गुण मनुष्यत्व का निर्णायक हैं।
यह धर्म का बास्तविक रूप कुछ प्रयाग तीर्थ के जैसा हैं। गंगाके जैसा स्वच्छ और शीतल, यमुना के जैसा गुणवान, और अदृश्य रूप मैं सरस्वती का ज्ञान का वास।
उसके बाद आता हैं आस्था कि बात। अब सब धार्मिक तो हैं किन्तु कुछ लोग कहते हैं भगवान हैं, कुछ नहीं। तो यहा आकर धर्म दो भाग होते हैं। १. आस्तिक २. नास्तिक।
नास्तिकयावाद मैं ना जाये, कियुकि बिषय बदल जायेगा।
आतेहैं असयिकयवाद मैं। यह आकर ईश्वर का उपथिति सृष्टि होता हैं। जिसका वर्णना कुछ ऐसा हैं-
“ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पुर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥”
-वृहदरणक उपनिषद
संखिप्त अनुवाद – जो स्वयं पूर्ण रूप में हैं ,और जिसमैं सब कुछ पूर्ण होता हैं, वही ईश्वर हैं।
तो, मेरे भाई, कौन धर्म से बाहर हैं। किया आप मनुष्य के तरह आचरण या स्वभाब नही धारण करते हैं? तो आप भी धर्म पालण कर रहे हैं।
रही बात आस्था की, वो तोह आप को तब ही आयेंगे जब आप भगवान को समझ पायेंगे। यह सम्पूर्ण आप का विचार हैं।
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