मानवता की सेवा ही सच्चे अर्थ मे ईश्वर की सेवा है

धर्म मनुष्य मे जीवन के महत्व को स्पष्ट करता है, पवित्र भावनाओं को पैदा करता है एवं मानसिक तनाव व चिन्ताओं से दूर रखकर गलत, समाज विरोधी व धर्म विरोधी कार्यों के प्रति घृणा को पैदा करता है। इस तरह धर्म व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास करता है एवं उसे सुख समृद्धि हेतु धार्मिक नियमों के अनुरूप आचरण के लिए प्रेरित करता है।

कुछ लोग तर्क देते हैं कि हमें नैतिक होने के लिए धर्म की आवश्यकता है – हमें सही और गलत की समझ देने के लिए, और हमें ‘अच्छा’ बनने में मदद करने के लिए। यह अच्छे व्यवहार के लिए मानक स्थापित करता है और बुरे व्यवहार करने वालों को दंडित करता है। अन्य लोग कहेंगे कि ईश्वर या देवताओं पर विश्वास किए बिना नैतिक और खुश रहना पूरी तरह से संभव है।

प्रत्येक धर्म अपनी मान्यताएँ और मान्यताओं की अपनी व्यापक प्रणाली बनाता है। इन प्रणालियों को मोटे तौर पर तीन मुख्य श्रेणियों में बांटा जा सकता है: जीववाद, बहुदेववाद और एकेश्वरवाद ।

सभी धर्म एक ही संदेश देते हैं कि मानवता की सेवा ही सच्चे अर्थ मे ईश्वर की सेवा है। एक बार स्वामी विवेकानंद जी अमेरिका प्रवास पर थे तो किसी ने उनसे कहा कि कृपया आप मुझे अपने हिंदू धर्म में दीक्षित करने की कृपा करें। स्वामी जी बोले, महाशय मैं यहां हिंदू धर्म के प्रचार के लिए आया हूं, न कि धर्म-परिवर्तन के लिए। मैं अमेरिकी धर्म-प्रचारकों को यह संदेश देने आया हूं कि वे अपने धर्म-परिवर्तन के अभियान को सदैव के लिए बंद करके प्रत्येक धर्म के लोगों को बेहतर इंसान बनाने का प्रयास करें। इसी में हर धर्म की सार्थकता है। वर्तमान में हमने मानवता को भुलाकर अपने को जाति-धर्म, गरीब-अमीर जैसे कई बंधनों में बांध लिया है और उस ईश्वर को अलग-अलग बांट दिया है। धर्म एक पवित्र अनुष्ठान भर है, जिससे चेतना का शुद्धिकरण होता है। धर्म मनुष्य में मानवीय गुणों के विचार का स्रोत है, जिसके आचरण से वह अपने जीवन को चरितार्थ कर पाता है। मानवता के लिए न तो पर्याप्त संसाधनों की आवश्यकता होती है और न ही भावना की, बल्कि सेवा भाव तो मनुष्य के आचरण में होना चाहिए। जो गुण व भाव मनुष्य के आचरण में न आए, उसका कोई मतलब नहीं रह जाता है।

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