नेपाल इन दिनों एक बड़े राजनीतिक और सामाजिक संकट से गुजर रहा है। सोशल मीडिया पर लगाए गए प्रतिबंध ने जिस चिंगारी को जन्म दिया था, वह अब एक व्यापक जनआंदोलन का रूप ले चुकी है। खासकर युवाओं—जिन्हें “Gen Z” कहा जा रहा है—ने सड़कों पर उतरकर सरकार की नीतियों और भ्रष्टाचार के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद कर दी है।
सोशल मीडिया केवल मनोरंजन या संवाद का माध्यम नहीं है, बल्कि आज की युवा पीढ़ी के लिए यह अभिव्यक्ति का सबसे बड़ा मंच है। सरकार का यह तर्क कि कंपनियाँ स्थानीय क़ानूनों का पालन नहीं कर रहीं, अपने आप में उचित हो सकता है; लेकिन जनता को बिना संवाद के अचानक प्रतिबंध लगाना, लोकतांत्रिक संवेदनाओं को आहत करता है। यही वजह है कि प्रतिबंध हटाने के बावजूद आंदोलन थमा नहीं, बल्कि और उग्र हो गया।
इन प्रदर्शनों में सिर्फ़ इंटरनेट की आज़ादी का मुद्दा नहीं है। इसके केंद्र में बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार, सामाजिक असमानता और जनता की उपेक्षा जैसे गहरे प्रश्न हैं। युवाओं ने साफ कर दिया है कि वे केवल “डिजिटल अधिकार” नहीं, बल्कि पारदर्शी शासन और जवाबदेही चाहते हैं। संसद भवन, राजनीतिक दलों के दफ़्तर और नेताओं के घरों में आग लगने की घटनाएँ यह संकेत हैं कि आक्रोश अब केवल प्रतीकात्मक नहीं रहा।
प्रधानमंत्री के.पी. शर्मा ओली का इस्तीफ़ा और सोशल मीडिया बैन का हटना केवल अस्थायी समाधान हैं। असली चुनौती यह है कि नेपाल की राजनीति बार-बार अस्थिरता और दलगत खींचतान में क्यों फंस जाती है। यदि यही क्रम जारी रहा तो लोकतंत्र जनता के लिए निराशा का कारण बनेगा, उम्मीद का नहीं।
नेपाल के नेताओं को अब यह समझना होगा कि समय बदल चुका है। आज की पीढ़ी सवाल पूछती है, जवाब चाहती है और व्यवस्था को बदलने की ताकत भी रखती है। सेना की तैनाती और कर्फ़्यू से शायद हालात कुछ समय के लिए नियंत्रित हो जाएँ, लेकिन स्थायी शांति और स्थिरता तभी संभव है जब सरकार भ्रष्टाचार पर सख़्ती, रोजगार के अवसर और सामाजिक न्याय सुनिश्चित करे।
निष्कर्ष
नेपाल का मौजूदा आंदोलन एक चेतावनी है—नेताओं के लिए भी और पूरे दक्षिण एशिया के लोकतंत्रों के लिए भी। जब जनता को अपनी बात कहने के मंच बंद कर दिए जाते हैं, तो वे सड़क को ही अपना मंच बना लेते हैं। यह समय है कि नेपाल की राजनीति दलगत हितों से ऊपर उठकर देश की नई पीढ़ी के सपनों और आकांक्षाओं को समझे। तभी यह संकट अवसर में बदल सकता है।
✍️ Politicianmirror.com के लिए नेपाल की वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य पर एडिटर इन चीफ देवेन्द्र सिंह का सम्पादकीय लेख