आधुनिक दौर में शिक्षा का व्यवसायीकरण और गुरु-शिष्य परम्परा का ह्रास
शिक्षा किसी भी समाज की आत्मा होती है। यह केवल ज्ञान का हस्तांतरण नहीं, बल्कि संस्कार और मूल्यों का संवाहक भी है। भारतीय परम्परा में शिक्षा का स्वरूप हमेशा से अलग रहा है। गुरुकुल प्रणाली में गुरु और शिष्य का रिश्ता केवल पढ़ाने और पढ़ने तक सीमित नहीं था, बल्कि वह जीवनभर का आध्यात्मिक और सांस्कृतिक संबंध बन जाता था। गुरु, शिष्य को विद्या के साथ-साथ धर्म, नीति, चरित्र और जीवन जीने की कला सिखाता था।
लेकिन आधुनिक दौर में शिक्षा का स्वरूप तेजी से बदल रहा है। आज शिक्षा का उद्देश्य ज्ञानार्जन से अधिक “रोजगार और कमाई” तक सीमित हो गया है। निजी विश्वविद्यालयों, महंगे स्कूलों और कोचिंग सेंटरों ने शिक्षा को एक व्यवसाय बना दिया है। अब फीस, पैकेज और रैंकिंग को ही सफलता का पैमाना माना जाने लगा है।
गुरु-शिष्य परम्परा पर इसका असर गहरा है।
जहाँ पहले शिष्य गुरु को माता-पिता के समान मानकर श्रद्धा और समर्पण भाव से शिक्षा ग्रहण करता था, वहीं अब छात्र और शिक्षक का रिश्ता “ग्राहक और सेवा प्रदाता” जैसा हो गया है। शिक्षक पढ़ाने को एक “पेशा” मानकर सीमित हो गए हैं और छात्र भी गुरु को केवल परीक्षा में अच्छे अंक दिलाने वाला मार्गदर्शक समझने लगे हैं। परिणामस्वरूप, शिक्षा का मानवीय और नैतिक पक्ष तेजी से कमजोर हो रहा है।
इसका दुष्परिणाम समाज में साफ दिखाई देता है—
- शिक्षा से संस्कार और नैतिकता गायब हो रही है।
- विद्यार्थी “नौकरी पाने की दौड़” में मानवीय मूल्यों से कटते जा रहे हैं।
- शिक्षक-शिष्य का आत्मीय और भावनात्मक संबंध लगभग समाप्त हो गया है।
समाधान क्या है?
शिक्षा को केवल व्यवसाय मानने के बजाय सेवा और संस्कार का माध्यम बनाना होगा। इसके लिए—
- पाठ्यक्रम में नैतिक और मूल्य-आधारित शिक्षा को स्थान देना आवश्यक है।
- शिक्षकों को केवल नौकरी नहीं बल्कि समाज निर्माण का दायित्व समझना होगा।
- छात्रों में भी गुरु के प्रति सम्मान और कृतज्ञता की भावना जगानी होगी।
निष्कर्ष
यदि शिक्षा केवल डिग्री और पैकेज तक सीमित रह गई, तो आने वाली पीढ़ियाँ ज्ञान की आत्मा से वंचित रह जाएँगी। भारत को अपनी उस महान परम्परा को फिर से जीवित करना होगा, जहाँ गुरु-शिष्य का संबंध केवल ज्ञान तक सीमित न होकर जीवन मार्गदर्शन का प्रतीक था। यही शिक्षा को व्यवसाय से सेवा की ओर वापस ले जाने का मार्ग है।
